Sunday, July 5, 2015

होशियारी

आज फिर तेरे दर पर माथे   
पटक पटककर बिलख उठा हूँ
पटकी हुई माथे पे झर्रे पड़गए हैं
लहू  निकलना तो दूर की बात
अब आँखों से अश्क भी नहीं निकलते 

मगर तुम तो ज़ालिम आँख अध मूंदे
यूँ मुस्कुराते कमर पे हाथ थामे खड़े हो
तेरी सूरत की घमंड से दिखता है कि ,
तुम मेरी मांग की इंतज़ार कर रहे हो 


मगर अपने दिल में यह गुरूर मत रखना
कि, तुम मेहरबान हों 
मेहरबानी की कीमत तो  सिर्फ
भिकारी के सामने होती है

मैं कुछ माँग  नहीं रहा तुम से
बस तुम को यह बता रहा हूँ कि,
तेरी सिला की ज़हर को
एक एक घुट कैसे पी रहा हूँ  


ज़हर निगलने की नौटंकी कर उसे 
गले में ही दबा के रखने की तुम्हारी होशियारी से वाक़िफ  हूँ मैं 
मैं भी पेट तक उतरने नहीं दूँगा उसे
यह मेरी  बिलखना भी झूटी हैं और तुम से भी बड़ा नौटंकी  हूँ मैं 

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